संयुक्त राज्य अमेरिका अब उथल-पुथल की हालात में है। वहां चल रहे आंदोलन का नारा है - "ब्लैक लाइव्स मैटर" - जिसका हिंदी अनुवाद है - "काले लोगों की जिंदगी की क़ीमत होती है"। हालांकि यह अमेरिका में शुरू हुआ, और फिर ये आंदोलन पूरे यूरोप में फैल गया है - ब्रिटेन, साथ ही फ्रांस, नीदरलैंड, बेल्जियम और कई दूसरे देशों में भी।
शुरू में ही क्या यह सवाल पैदा नहीं होता है- अचानक यह नारा क्यों? हर इन्सान की जिंदगी की क़ीमत है - गोरा या काला जो भी हो। क्या इस बारे में कोई सवाल हो सकता है? लेकिन, जब दो महादेशों के कई शहरों में हज़ारों लोगों ने विरोध करना शुरू कर दिया है, तो यह समझना चाहिए कि काले लोगों की जिंदगी अभी भी दूसरे लोगों के बराबर नहीं है।
शुरुआत की घटना
ये सवाल पैदा होने की काफ़ी वजह हैं। जिस घटना को लेकर आज अमेरिका में इतनी उथल-पुथल मची है, उस घटना को ही देखिए। सिर्फ़ 20 डॉलर के लिए इतनी फ़साद। अमेरिका के मिनियापोलिस में पुलिस ने न सिर्फ़ जॉर्ज फ्लॉयड नाम के एक काले इंसान को गिरफ़्तार किया, बल्कि उसे ज़मीन पर फेंककर उसके गले को अपने घुटनों से तब तक दबाए रखा, जब तक कि उसकी जान नहीं चली गई। आप उस वीडियो को देखकर चौंक जाएंगे - जॉर्ज फ्लॉयड एक गोरे पुलिसवाले के घुटनों के नीचे दम घुटते हुए बार बार कहता रहा - "मैं साँस नहीं ले सकता" - "मैं साँस नहीं ले सकता"। लेकिन किसी को भी कोई परवाह नहीं - उसका जिस्म धीरे-धीरे काहिल हो गया। अगर जॉर्ज फ्लॉयड की जगह कोई गोरा इनसान होता, तो क्या पुलिस उसे इस तरह ठंडे दिमाग़ से मार पाती? अमेरिका में पुलिस ने बार-बार अपने कामों के ज़रिए ये समझा दिया है कि उनके लिये अभी भी काली चमड़ीवाले लोगों की जिंदगी की ज़रा सी भी क़ीमत नहीं है। इसीलिए ऐसी घटनाएं एक बार नहीं, बार-बार होती हैं, होता ही रहती हैं। काले लोगों को बार-बार गोली मारकर, गला घोंटकर मार दिया जाता है। और बार-बार काले लोग इस ज़ुल्म के ख़िलाफ़ उठकर खड़े होते हैं, विरोध फूट पड़ता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ है।
काले लोगों पर ज़ुल्मो सितम
अमेरिका में काले लोगों पर यह ज़ुल्मो-सितम अमेरिका की स्थापना के बाद से चल रहा है। यूरोप के कई देशों से लोग आकर अमेरिका पर कब्जा करके खूँटा गाड़ लिये थे। बड़े बड़े खेतों पर काम कराने के लिए सफेद चमड़ीवाले खेत मालिकों ने अफ्रीका के काले लोगों को पकड़कर ग़ुलाम बनाकर ले आया। तब से, काले लोगों पर गोरे लोग़ों का ज़ुल्म चल रहा है। आज से डेढ़ सौ साल से भी ज़्यादा पहले, सन 1865 में, ग़ुलामी को ख़त्म कर दिया गया था। तब से, काले लोगों की कानूनी तौर पर ग़ुलामी तो बंद हो गई है, लेकिन काले लोगों पर ज़ुल्मो-सितम बंद नहीं हुआ है। काले लोगों को इंसान के हिसाब मे नहीं माना जाता है – ऐसा नहीं कि आज भी सही तरह से माना जाता है। दशकों पहले, अमेरिका के कई राज्यों में क़ानूनन गोरों और कालों के हक़ूक़ को अलग करके रखा गया था। ज़्यादातर अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में ही ऐसा क़ानून था। क्योंकि इन दक्षिणी राज्यों में ग़ुलामी ज़्यादा चालू थी। काले लोगों के लिए अलग से पीने के पानी का इंतज़ाम, रेस्त्रां में काले लोगों के घुसने की मनाही - जैसे कि ब्रिटिश शासित भारत में थे। यूरोपीय लोगों को जो अधिकार था, भारतीयों के लिए वह नहीं था। यूरोपीय लोगों के लिए रेलवे में अलग डिब्बा जहां भारतीयों का घुसना मना था। यूरोपीय क्लबों में भारतीयों को प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी जाएगी – इस तरह भारतीयों पर कई किस्म की पाबंदी थी, ऐसे ही अमेरिका के उन सभी राज्यों में काले लोगों पर भी कई पाबंदियों की कांटेदार तार की बाड़ थी। भले ही कुछ दशक पहले ऐसे ही एक आंदोलन के ज़रिए इस क़ानून को रद्द कर दिया गया था, लेकिन अमेरिका में काले लोगों को अभी भी गोरे लोगों के बराबर हक़ और सहूलियत नहीं मिलती हैं। जब काले लोगों के पुरखों ग़ुलाम थे, उनके पास तो कोई संपत्ति नहीं थी, वे ख़ुद गोरों की संपत्ति थे। इसलिए आज़ाद होने के बाद, वे अमेरिका में सबसे ग़रीब, सबसे महरूम लोग थे। ज़्यादातर शोषित मज़दूर और मेहनती लोग भी काले लोग हैं। आज भी उनके बीच ग़रीबी ज़्यादा है। वे सबसे ज़्यादा भीड़ और अस्वस्थ इलाकों में रहते हैं। इस साल के कोरोना महामारी में भी देखा गया कि अमेरिका में हर राज्य में आबादी की तुलना में कोरोना से बीमार या मारे गए लोगों में से काले लोगों का अनुपात बहुत ज़्यादा है। आज भी उन्हें जिंदगी की कई दायरे में आगे बढ़ने का माक़ूल मौक़ा नहीं मिलता है। सिर्फ़ ग़रीबी के वजह से नहीं, बल्कि ख़ास तौर पर गोरों की भेदभावपूर्ण नीतियों के वजह से। पैसे रहने से भी बेहतर इलाक़ों में गोरों के ख़िलाफ़ी के वजह से वे घर ख़रीदने या किराए पर ले नहीं सकते। उनके पास क़ाबिलियत होने से भी उन्हें उस क़ाबिलियत का प्रतिफल नहीं मिलता है। और सबसे ख़तरनाक बात है पुलिस की बर्बरता। हर साल कितने काले लोग पुलिस के ज़ुल्म का शिकार बनते हैं, उसकी कोई गिनती नहीं है।
वहां काले लोग, दलित लोग यहां
अमेरिका में काले लोगों की हालत हमारे देश में दलितों जैसी है। उच्चजातीय हिंदुओं के लिये दलित जाति के लोग अछूत थे। हिंदू समाज में सबसे नीचे तबक़े के मेहनतकश लोग दलित थे। उनके पास लगभग कोई संपत्ति नहीं थी। अस्पृश्यता को आज कानून के जरिए रोक दिया गया है, लेकिन दलितों पर सामाजिक उत्पीड़न अभी भी जारी है। वे अभी भी कई मामलों में सामाजिक अधिकारों से वंचित हैं। उन्हें मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार नहीं है, उन्हें उच्चजातीय हिंदुओं से अलग एक पंक्ति में खाना होगा। कई जगहों पर अभी भी दलितों और उच्चजातीय हिंदुओं के लिए पीने के पानी की अलग इंतजाम है। उच्चजातीय हिंदुओं के कुएं से पानी लेने के लिए काले लोगों को क्रूरता की हद तक सज़ा दिया जाता है। अगर उच्चजातीय हिंदू परिवारों के बच्चों के साथ प्यार करके शादी करते हैं तो अभी भी दलित लड़के और लड़कियों को मार दिया जाता है। हालाँकि कानून में समानता है, लेकिन जाति-हिंदू समाज दलितों को इंसान नहीं मानता, जैसे अमेरिका में काले लोगों को गोरे लोग जिस नज़रिए से देखते हैं।
रंगभेद प्रथा - एक सामाजिक उत्पीड़न
ग़ुलामी की प्रथा को खत्म किए जाने के इतने दिनों बाद भी काले लोगों पर इस तरह के दरिंदगी की हद तक ज़ुल्म बरक़रार रहने की वजह है समाज को गोरों और कालों में बाँटकर रखने की सोच। गोरे लोगों के बीच अभी भी यह गुमान है कि गोरे लोग पैदाइशी तौर पर काले लोगों से बेहतर होते हैं - जाति के हिसाब से, इन्सानों में गोरे लोग सबसे अच्छे हैं, बाकी लोग जाहिल और जंगली हैं। गोरे लोगों के दबदबे के इस गुमान को अभी भी गोरें समुदाय का एक बड़ा हिस्सा समर्थन करता है। लोकतंत्र और समानता की बात करते हुए भी, शासक भी गोरे लोगों के इस दबदबे को बरक़रार रखने के लिए काम करते हैं - चाहे ट्रम्प की तरह खुले तौर पर या परदे के पीछे। मज़दूरों को दबाने में कारखाना मालिकों के लिए भी यह सोच काम करती है - क्योंकि मज़दूरों के बीच काले लोगों की गिनती ही ज़्यादा हैं।
लेकिन जहां ज़ुल्म है, वहीं विरोध भी है। इसलिए बार-बार काले लोग गोरे शासकों की इस नस्लवादी सोच और के ख़िलाफ खड़े हुए हैं। आज की लड़ाई अचानक शुरू नहीं हुई। पिछले कई सदियों के ग़दर और ख़िलाफ़त के सिलसिले से जुड़कर ही आज फैला है ये आंदोलन - "ब्लैक लाइव्स मैटर" - काले लोगों की जिंदगी की कीमत है। जब तक ज़ुल्मो सितम जारी रहेगा, तब तक काले लोग फिर से ज़ोरदार बग़ावत में खड़े होंगे।
इस आंदोलन की ख़ास मांग है पुलिस व्यवस्था का ख़ात्मा
इस आंदोलन में, प्रदर्शनकारियों ने दो ख़ास मांगों को सामने लाया है। पहली मांग यह है कि जॉर्ज फ्लॉयड की क़त्ल में शामिल लोगों पर क़त्ल के इलज़ाम में मुक़दमा करके वाजिब सज़ा देना होगा। दूसरी मांग थोड़ी बड़ी है। यह मांग है कि पुलिस व्यवस्था का ढांचा पूरा बदलना होगा। कई जगहों पर ऐसे भी मांग की गई है कि पुलिस व्यवस्था को ही ख़त्म किया जाए। आप सोच रहे होंगे कि कानून व्यवस्था बनाए रखने का काम कौन करेगा? उनका जवाब है: उस जिम्मेदारी को जनता की फौज को ही संभालना चाहिए। अमेरिका में सिएटल नाम के एक शहर में, प्रदर्शनकारियों ने पुलिस के सदर दफ़्तर से सँटे एक इलाके से पुलिस को हटाकर उस इलाके की प्रशासनिक काम को स्थानीय लोगो के दख़ल में लाकर पुलिस के बिना ही कैसे रहा जाता है, इसका एक मिसाल क़ायम करने की कोशिश की है। हम, इस देश के मज़दूर-किसान-ग़रीब लोग, लड़ते हुए बार-बार पुलिस के हमले के शिकार बनते हैं - हम देखते हैं कि पुलिस कारखाने के मालिकों और ज़मीन मालिकों के फ़ायदे के लिये काम करती है। इतना ही नहीं, हम रोज़ाना यह भी देखते हैं कि ज़्यादातर वक़्त पुलिस मुलज़िमों को दबाती नहीं है, बल्कि मुलज़िमों को बचाती है। ख़ासकर अगर मुलज़िम अमीर हैं या अमीरों के मदद से पले-बढ़े हैं या उनके फ़ायदे के लिए काम करते हैं। इसलिए, यह मांग हम सभी को जायज़ लगना चाहिए।
प्रदर्शनकारियों की एक और मांग यह है कि पुलिस व्यवस्था को चलाने के लिए जो पैसा ख़र्च किया जाता है, उस पैसे को लोगों की सलामती के लिये ख़र्च करना होगा - चिकित्सा क्षेत्र में, शिक्षा क्षेत्र में और उन लोगों के लिए घर के इंतज़ाम करने के लिए जिनके सिर पर छत नहीं है। इस बारे में यह कहना वाजिब होगा कि आज अमेरिका में इस मांग की वाक़ई एक वजह है। पिछले दस या बारह सालों से, अमेरिकी अर्थव्यवस्था बहुत कठिन स्थिति में है। 2008 में आया आर्थिक संकट कुछ हद तक बीत गया लेकिन पूरी तरह से नहीं बीता। बल्कि, यह कोरोना महामारी के दौरान बढ़ गया। राष्ट्र ने लोक कल्याण क्षेत्र में ख़र्च कम कर दिया है। कई लोग बेघर हुए हैं। इसलिए प्रदर्शनकारी मांग कर रहे हैं कि पैसा लोगों की ज़रूरतों के लिए ख़र्च किया जाए न कि पुलिस के लिए।
ये इस आंदोलन की बाहरी माँगें हैं। लेकिन, इस आंदोलन के अंदर एक और बड़ी मांग छिपी हुई है। यही महत्वपूर्ण मांग है। यह मांग है कि रंगभेद की रिवाज़ को पूरी तरह से मिटा दिया जाए। सिर्फ़ क़ानून की किताब में लिखने के लिये नहीं, हक़ीक़त में ज़िंदगी में ऐसे बदलाव लाने के लिए। काले लोगों को गोरे लोगों की तरह एक ही हक़, बराबर की हक़ देना होगा। लड़ाई तब तक जारी रहेगी जब तक भेदभाव के ज़ुल्मो सितम से पूरी तरह आज़ादी नहीं मिल जाती। आज की लड़ाई भले ही रुक जाए, लेकिन फिर से लड़ाई होगा। आंदोलन का नारा भले ही बाहर से अलग हो, लेकिन इसकी मांग अंदर ही अंदर बनी रहेगी। किस तरह से उस मुक़ाम को हासिल किया जा सकता है वह आंदोलनकारियों को सोचना होगा – नहीं तो इतना लहू बहाना, इतनी सारी क़ुरबानी नाकाम हो जाएगी।
इस बार के आंदोलन की ख़ासियत: गोरे लोगों की भागीदारी
इस बार के संघर्ष में दो ग़ौर तलब ख़ासियत है। पहले अमेरिकी रंगभेद विरोधी आंदोलन अमेरिका में ही सीमित थी। इस बार का विरोध यँहा तक कि यूरोप के कई शहरों में भी फैल गया है। यूरोपीय देशों में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन इन देशों के औपनिवेशिक इतिहास से जुड़ा है। आज से लगभग 500 साल पहले, इन देशों से ही शासकों के लूट-खसोट के ज़रूरत के लिए खोजी यात्रियों ने पूरी दुनिया के विभिन्न प्रान्तों में उपनिवेश स्थापित करने के लिए निकल पड़े। उन्होंने अमेरिका के साथ साथ दुनिया के कई देशों की ‘खोज’ की, जो पहले यूरोपीय लोगों के लिए अनजानी थी। उन्होंने अमेरिका, अफ्रीका और एशिया के फैलाई इलाकों पर क़ब्ज़ा कर लिया और अपने उपनिवेश क़ायम किए। भारत में भी लंबे समय से इन देशों का उपनिवेश होकर उनके पैरों तले दबा हुआ था। उस समय कई यूरोपीय सौदागर, ख़ास तौर पर ब्रिटिश सौदागर, ग़ुलामों का कारोबार करते थे और अफ्रीका से काले लोगों को ग़ुलाम बनाकर अमेरिका और यूरोप में भेज देते थे। आज जिस पूँजीवाद का उफान है, उसकी शुरूआत उपनिवेशी धन की लूट और ग़ुलामी की रिवाज़ की ही मदद से हुई थी। हालांकि ग़ुलामी को धीरे-धीरे रद्द कर दिया गया, लेकिन यूरोपीय देशों की उपनिवेशों में रंगभेद का उसूल पनपा। पिछली सदी के बीच तक, अहम साम्राज्यवादी देशों, फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी ने लगभग पूरी दुनिया को अपने पैरों के नीचे दबाकर रखा था। उन्होंने उपनिवेशों के लोगों को अपने पैरों तले रखने के लिए नस्लवाद का सूत्र रटवाया – ‘गोरे लोग सभी लोगों में सबसे महान हैं’ और उन्होने इन जंगली जातियों को इनसान बनाने का ज़िम्मा अपने कंधे पे उठा लिया है। इसी वजह से, अमेरिका के अलावा, न केवल ब्रिटेन में, बल्कि फ्रांस के साथ दूसरे यूरोपीय देशों में भी नस्लवाद अच्छा-ख़ासा मौजूद है। बहुत से काले लोग पिछले ग़ुलाम के वशंज के हिसाब से रह गए हैं। फिर, इन यूरोपीय देशों के उपनिवेशों से कई काले या अश्वेत लोग यूरोप और अमेरिका आए और इन देशों को अपना घर बनाया। अमेरिका की तरह यूरोपीय देशों में भी इन काले या अश्वेत लोगों के साथ गोरे लोग भेदभावपूर्ण सुलूक करते हैं। इसी वजह से अमेरिका की इस ब्लैक लाइव्स मैटर की लहर आज यूरोप में भी फैल गया है। रंगभेद का विरोध करने के अलावा, आंदोलनकारियों द्वारा इस देश के औपनिवेशिक इतिहास के ख़िलाफ भी आवाज़ उठा रहे हैं। क्योंकि जैसा कि पहले बताया गया है - उस समय की औपनिवेशिक नीति इन देशों में नस्लवाद के साथ गहरी तरह से जुड़ी हुई है। इसीलिए, इस आंदोलन के दौरान, कई ऐसी औपनिवेशिक हस्तियों की मूर्तियों को तोड़ दिया गया है या प्रदर्शनकारियों के दबाव से अधिकारियों को उन्हें हटाने के लिए मजबूर किया गया है। यह अमेरिका में भी हुआ है। जो शख़्स सबसे पहला यूरोपीय के तौर पर अमेरिकी महादेश पर पैर जमाया और वँहा के मूल निवासियों को क़त्ल करवाया उस क्रिस्टोफर कोलंबस की मूर्ति से सिर तोड़ दिया गया है। चर्चिल, ब्रिटेन के औपनिवेशिक और रंगभेदी राजनीतिक नेता की मूर्ति पर लिख दिया गया है: "एक नस्लवादी था।" एक नस्लवादी अंग्रेजी सौदागर और दक्षिण अफ्रीका के औपनिवेशिक शासक सेसिल रोड्स की बुत को हटाने के लिए मजबूर किया गया है।
इस बार के आंदोलन की एक और ख़ासियत, जो अमेरिका और यूरोप के दो महादेशों के लिये ही सच है, वह है इस आंदोलन में गोरों की भागीदारी। रंगभेद के खिलाफ आंदोलन आज नहीं हो रहा है, यह ग़ुलामी के रिवाज़ के वक़्त था, उसके बाद भी इसका सिलसिला जारी रहा। 1960 के दशक के आख़िरी सालों में एक जन आंदोलन हुआ था। शायद इतना बड़ा नहीं, लेकिन उसके बाद भी बार-बार हुआ है। जो कोई भी इस आंदोलन की तस्वीर को देखा है और पिछले आंदोलन के साथ मिला कर देखा है, उनकी आंखों में, दोनों आंदोलनों के बीच एक फ़र्क़ किसी तरह से भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है। पिछले आंदोलन पूरी तरह से काले लोगों के आंदोलन थे - गोरे लोगों की भागीदारी बहुत कम थी। गोरे लोगों में से कुछ प्रगतिशील, लोकतांत्रिक बुद्धिजीवियों ने उन आंदोलनों में भाग लिया था। लेकिन, इस बार आंदोलन की तस्वीर बिल्कुल अलग है। इस आंदोलन की एक ख़ासियत यह है कि इस आंदोलन में बड़ी संख्या में गोरे लोगों की भागीदारी है। इसीलिए इस आंदोलन को सिर्फ़ अश्वेत लोगों का संघर्ष नहीं कहा जा सकता है- इसे रंगभेद के खिलाफ, काले लोगों के उत्पीड़न के खिलाफ अमेरिका के लोकतांत्रिक लोगों का आंदोलन कहा जा सकता है, काले या गोरे रंग का कोई भेद के बिना। शायद इसी वजह से अमेरिका के बड़े शहरों, यहां तक कि छोटे शहरों भी इस आंदोलन के आग की तपिश है।
गोरे लोगों की भागीदारी की वजह क्या है?
गोरे लोगों की यह भागीदारी एक बात को साफ़ जाहिर करती है - हालात में अंदर ही अंदर बदलाव आया है - बदल गया है, भले ही यह थोड़ा ज़्यादा कहना होगा, इसमें कोई शक़ नहीं है कि हालात बदल रहा है। बदलाव कहां है? दरअसल पिछले दस-बारह सालों से, 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद, यूरोप और अमेरिका में कई देशों में कई बार विरोध प्रदर्शन हुए हैं। विरोध करने वालों में काले और गोरे दो समुदाय के लोग थे। ऐसा इसलिए है, हालांकि शासकवर्ग बड़े पूंजीपतियों के फ़ायदे के लिए जो हमले चला रहे थे, उससे काले लोगों को ही सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ा है, गोरे लोगों में से मज़दूर और यहां तक कि मध्यम वर्ग भी शासकों के इस हमले का शिकार हुए हैं। इसके अलावा, दक्षिणपंथी, फासीवादी ताकतें भी इस अवधि के दौरान उभरी हैं, जिसका एक प्रतीक अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प हैं। उनकी इस फासीवादी नीति के खिलाफ, लोगों का एक हिस्सा भी लोकतंत्र के लिए लगातार आंदोलन कर रहा है। इन सभी आंदोलनों ने अमेरिका और यहां तक कि यूरोप में काले और गोरे दोनों समुदायों के लोगों को एक ही धागे से बाँध दिया है। शायद, इन आंदोलनों ने लोकतंत्र के सवाल को सामने लाने के नतीजे में गोरे लोगों के बीच उनकी सिर्फ़ गोरे होने के नाते जो ख़ास सुविधायें मिलती है, उसके बारे में भी सवाल उठे हैं। इसका एक और नतीजा दिखाई दे रहा है यूरोप के औपनिवेशिक अतीत की बारे में सवाल उठाने के जरिए। बेशक़ यह अमेरिका और यूरोप में लोकतांत्रिक आंदोलन में एक अहम प्रगति है। गोरे लोग कभी भी अपने शासकों के ज़ुल्मों का सही मायने में विरोध नहीं कर पाएंगे, जब तक कि वे गोरे के रूप में अपनी विशेषाधिकार प्राप्त स्थिति के ख़िलाफ़ खड़े नहीं होते। इसीलिए यह कहना वाजिब होगा कि वे लोकतंत्र के लिए अपने संघर्ष में एक क़दम और आगे बढ़ गए। अहम बात यह है कि यह एकता ऊपरी तबके के नेताओं की क़ानूनी हद की एकता नहीं है, यह एकता निचले तबके के लोगों के आंदोलन के जरिए बनाई गई है। यह इस आंदोलन की सबसे बड़ी ख़ासियत है। अगले नवंबर में अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव होगा। मौजूदा राष्ट्रपति ट्रम्प शुरुआत से ही अपने नस्लवादी रुख के लिए जाने जाते हैं। इस बार आंदोलन की शुरुआत से, वह खुले तौर पर सेना के जरिए आंदोलन को दबाने की बात करते रहे हैं। इसी वजह से यह तो लाज़िमी है कि उनके राजनीतिक विरोधियों, ख़ास तौर पर डेमोक्रेट लोग, अगले राष्ट्रपति चुनाव में ट्रम्प के खिलाफ आम लोगों की इस ख़फ़गी का इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगे। जनता इस ख़फ़गी को राष्ट्रपति बदलने के खेल में इस्तेमाल होने देगें या इस आंदोलन को रंगभेद के ख़ात्मे के मक़सद से आगे बढ़ाएंगे यही देखने की बात है।
पूंजीवाद के उन्मूलन के बिना रंगभेद का खात्मा नहीं हो सकता
काले लोगों पर गोरों का ज़ुल्म ही सिर्फ़ लोकतंत्र की कमी की इज़हार नहीं है। और कई तरीके से समाज के एक हिस्से के लोगों पर समाज के दूसरे हिस्से का ज़ुल्म चल रहा है। नतीजतन, हमारी लड़ाई सच्चे लोकतंत्र के लिए है, जिसका मतलब है कि कोई भी किसी के सिर पर नहीं होगा, कोई किसी के पैरों के नीचे भी नहीं होगा। उस सच्चे लोकतंत्र का मतलब है वाक़ई सभी के लिए बराबर का हक़- सिर्फ नाम के लिए नहीं। ऐसा नहीं होना चाहिए कि आपके पास क़ानूनी हक़ है लेकिन क्या आपको वह हक़ मिल सकता है कि नहीं यह तय होगा आपके पैसे की थैला कितनी भारी है उसके हिसाब से। पूंजीवाद के तहत या पूंजीवाद को बरक़रार रखकर वह लोकतंत्र नहीं आ सकता। यहां तक कि काले लोगों पर गोरों का ज़ुल्म भी इस पूंजीवाद बरक़रार रहने से पूरी तरह से ख़त्म नहीं किया जा सकता है। हमने देखा है कि पूंजीवाद के शुरुआती विकास की ज़रूरतमंदी से ही ग़ुलामी का रिवाज़ शुरु हुआ था। फिर यह पूंजीवादी शासक ही पूंजीवाद के औपचारिक लोकतंत्र की ज़रूरतमंदी से ग़ुलामी को ख़त्म कर दिया था। लेकिन, पूंजीवाद में, वाक़ई बराबर का हक़ नामुमकिन हैं। क्योंकि पूंजीवाद शोषण की एक बंदोबस्त पर खड़ा है और शोषण की किसी भी बंदोबस्त में ज़ुल्मी और मज़लूम को बराबर का हक़ नहीं मिल सकता है। आज पूरी दुनिया साम्राज्यवादी देशों और दबे-कुचले देशों के बीच बँटा हुआ है। साम्राज्यवादी दुनिया भर में दूसरे जातियों पर ज़ुल्म करते रहते हैं और इसके जरिए पुराने औपनिवेशिक उसूलों को एक नए ढंग में वापस लाए हैं। इसीलिए ये शासक रंगभेद जैसे नीतियों व विचारों का समर्थन करते हैं। मसला एक या दूसरे शासक का नहीं है, मसला पूंजीवाद का है। पूंजीवाद की तबाही बिना सभी लोगों के लिए बराबर का हक़ लागू करना मुमकिन नहीं है और न ही काले लोगों पर गोरों के ज़ुल्म को पूरी तरह से मिटाना मुमकिन है। इसलिए, अगर नस्लवाद को सही मायने में मिटाना है, तो नस्लवाद विरोधी आंदोलन को पूंजीवाद को उखाड़ फेंकने के मक़सद की ओर बढ़ना चाहिए।
सर्वहारा पथ प्रकाशन
3 जुलाई, 2020
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